Making of a traveler – Teachings of my father
Originally, this article was written on the occasion of my father’s 75th birthday and published in a book that he compiled. It talks about how he taught me three critical things at right stage that seeded me with passion to live life and define what I am today – an avid traveler, an amateur travel photographer, and a passionate road tripper with an 8 years old travel blog – Everything Candid.
Written in November 2018.
पापा ७५ वर्ष के होने वाले हैं, और इस महत्त्वपूर्ण मील के पत्थर पर जब में खुद को उनके साथ खड़ा पता हूँ तो खुद का जीवन भी तेजी से फ्लैशबैक हो जाता है. सदाबहार हिमालयी नदी के समान, मेरे पापा मेरे लिए निरंतरता के प्रतीक रहे हैं. तूफानी समुद्र में खड़े अडिग प्रकाश स्तम्भ की तरह, मेरे पापा मेरे लिए असीम प्रेरणा के स्रोत्त रहे हैं.
कभी शांत चित्त होकर जब मैं भविष्य की संभावनाओ के बारे में सोचता हूँ तो अनायास ही भूत में घटित हुई तीन घटनाएँ बार बार मेरे सामने आ कड़ी होती हैं. जो मुझे मेरे पापा के वक्तित्व के और करीब ले जाती हैं. जिस औरों के द्वारा कम चली राह पर में चल रहा हूँ, उसकी बुनियाद मेरे पापा ने ही जाने-अनजाने डाली थी. जीवन की आपाधापी में व्यस्त, उन्होंने भी शायद नहीं सोचा होगा की उनकी कुछ सीखें, कुछ बातें, कुछ जिद्दें, कुछ डाटें मेरे जीवन को अलग ही रंग दे जायेंगी. हजारों बातों के बीच, मैं विशेषतः तीन बुनियादी बातों का जिक्र करना चाहता हूँ, जिनके बिना मेरा जीवन कैसा होता, ये तो पता नहीं पर हां, इतना सतरंगी और अतरंगी तो नहीं ही होता.
सबसे पहली बात जो मुझे याद है, उसकी शुरुआत एक रेल यात्रा के दौरान हुई, जब में कुछ १०-११ वर्ष था. समय व्यतीत करने के लिए उस दौर में ना मोबाइल फ़ोन के विडियो थे, ना ही हैण्ड-हेल्ड प्ले-स्टेशन. कॉमिक्स का दौर था, और चाचा चौधरी, पिंकी बिल्लू, नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव आदि उस उम्र के हीरो थे. यात्रा की शुरुआत में कुछ पांच-सात कॉमिक्स ए.एच.व्हीलर (A.H.Wheelers) से ले ली जाती थी मेरे लिए और पापा अपने लिए ढूंढ के लाते थे कादम्बिनी. मजे की बात होती थी की बिलासपुर से निकल कर हम पेंड्रा भी नहीं पहुँचते और सभी कॉमिक्स ख़त्म हो जाती थीं, लेकिन पापा मम्मी की कादम्बिनी अभी भी चल रही होती थी और दोनों कादम्बिनी के लेखों पर विचार विमर्श भी करते थे जिसका रस सह-यात्री भी लेते थे. खैर, यात्रा के दौरान कॉमिक्स खरीदने का यह सिलसिला चलता रहा और कॉमिक्सों का ढेर खड़ा होता रहा. ऐसी ही एक यात्रा में, पापा ने, जो की खुद भी बड़े चाव से सभी कॉमिक्स पढ़ते थे, सलाह दी की, बेटा इन १० मिनट की कॉमिक्स की जगह क्यूँ ना हम चम्पक, चंदामामा, सुमन सौरभ और नंदन आदि लें. पैसे भी बचेंगे, ज्यादा समय व्यतीत होगा और तरह तरह की नयी जानकारीयां भी मिलेगी. और मैंने ये बात पकड़ ली. इस एक सलाह और उसके मेरे द्वारा आत्मसात करेने के बाद, मेरा किताबों से जो सिलसिला चालू हुआ वह अनवरत जारी है. मेरे चहुँ ओर बौद्धिक विकास, सामान्य ज्ञान के प्रति जिज्ञासा, क्विज कम्पटीशन में पार्टिसिपेशन, राष्ट्रीय स्तर के निबंध प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान, मेरा शब्दों के साथ खेलना, शब्दों को पिरोना आदि सभी के पीछे, एक रेल यात्रा में दी गयी पापा की सलाह का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण स्थान है. कॉमिक्स एवम् बाल साहित्य से शुरू हुआ किस्सा, आज 350 से ज्यादा किताबों की लाइब्रेरी के तौर पर मेरे सामने खड़ा हैं. शब्दों से हुई दोस्ती आज मेरे यात्रा लेखन का मुख्य स्तम्भ है, जिसकी बुनियाद पापा ने कुछ २५ वर्ष पहले रखी थी.
अब जिक्र करते हैं, एक और जीवन को बदलने वाली घटना का. तब मैं चौथी या पांचवी कक्षा में था और हम अपने मूलस्थान सागर गए हुए थे. अचानक एक शाम को, मेरे हाँथ में पापा ने एक छोटा सा पॉइंट एंड शूट कैमरा लाकर रख दिया. बस फिर क्या था, मेरे हाथ तो जैसे जादु कि छङी लग गयी, और मैं निकल पङा सारी दुनिया को अपनी मुठ्ठी में कैद करने. पापा के द्वारा दिया, मेड इन चाइना “हाई-मैक्स’ कैमरा, कई वर्षों तक मेरा अभिन्न अंग रहा. मैंने बहुत से फॅमिली पोर्ट्रेटस को कैमरा में कैद किया, परिवार की हर शादी में वेडिंग फोटोग्राफी की, भोपाल एवं बांगो में ट्रेवल फोटोग्राफी आदि की. आज जब सोचता हूँ तो अनुभव करता हूँ कि, दुनिया को अपने अनुसार, अपने दृष्टि कोण से कैद करने का सामर्थ्य मुझे उस कैमरे ने ही दिया. और, आज हालत ये हैं की ट्रेवल फोटोग्राफी की विधा में, मैं अपना हाँथ आजमा रहा हूँ. काफी सीख लिया है, काफी और भी सीखना जारी है. भारत एवम् विश्व के कुछ बड़े नामों के साथ विषय चर्चा करने का भी सौभाग्य प्राप्त होता है. कुल मिला कर, अपने “कैनन डी.एस.एल.आर.” और “गोप्रो एक्शन कैमरे” के साथ मेरी दुनिया को अपने रंगों में कैद करने की जद्दोजहद जारी है. दुनिया को अपने रंग में रंगने की कोशिश में जब क्लिक करता हूँ तो हर क्लिक की आवाज पापा को समर्पित होती है.
यहाँ में एक और बात का जिक्र करना चाहता हूँ की, मेरे दादाजी ने जीवन यापन के लिए कई वर्ष फोटोग्राफर के तौर पर कार्य किया और उनका 1950 का कोडक कैमरा मेरे खजाने का सबसे बड़ा दमकता सितारा है. काफी लोगों का मानना है, की दादाजी के ही जींस मुझे विरासत में मिले हैं. उनको श्रध्दा पूर्वक नमन.
अब मैं बात करूँगा, एक ऐसे प्रसंग की जिसने मेरे सपनों को सही मायनो में गति दी. उन दिनों में हम छत्तीसगढ़ के बिलासपुर शहर में राजकिशोर नगर में रहते थे. और छठी कक्षा के बाद पड़ने वाली गर्मी की छुट्टियों का आलस्य पूर्ण आनंद मना रहे थे. उस लेस-कनेक्टेड दुनिया में कैरम बोर्ड, लूडो, तीन दो पांच, कनाष्टा, शतरंज आदि खेल परिवार में खेले जाते थे. बात होगी मई महीने की, आदतनवश पापा चार या पांच बजे से उठे हुए थे और प्यार भरा आदेश आया की मुझे भी उठना है. अलसाये से, अंगड़ाईयों की मदद से उठना ही पड़ा, आखिर उस क्षण में विकल्प ही क्या था. तैयार होते ही, पापा ने गाडी में बिठा दिया और कहा अब तुम कार चलाना सीखोगे. उनके यह शब्द जैसे ही कानों में घुसे, और मेरी पांचो इन्द्रियां चैतन्य हो उठी, छठी भी जागी तो जरुर होगी. जोश, ख़ुशी, उमंग सभी कुछ मैंने एक ही पल में महसूस कर लिया. रोज सुबह उठना, कार के स्टीयरिंग को थामना, राजकिशोर नगर में स्मृति वन के बाजू के वीरान मैदान में गाड़ी चलाने की कला को हमने आत्मसात किया. पापा ने प्रेरित किया और ड्राइविंग विधा की छोटी छोटी पेचीदगियों को समझते हुए, एक अच्छे शिष्य की तरह मैंने अपनी शिक्षा पूरी की. आठवी कक्षा तक आते आते, मैंने पापा के साथ कई सारी रोड-ट्रिप कर डाली; बिलासपुर से भिलाई, बिलासपुर से जबलपुर, बिलासपुर से रीवा इत्यादि. कार चलाना सीखा तो ये भी सीख लिया की आत्मविश्वास के समुद्र में गोते कैसे खाते हैं. आज का यह आलम है की, अपनी कार से मैं हिमालय की दुर्गम सड़कों को नाप रहा हूँ हैं; भारत के सुदूर गावों को छू रहा हूँ; विभिन जगहों के लोगों से मिल रहा हूँ; बरसाती नालों को लांघ रहा हूँ; नदिओं के साथ हवा से बातें कर रहा हूँ; हिमालयी दर्रों को पार कर रहा हूँ.
इन सभी साहसिक यात्रा अनुभव के दौरान, भारत भर से किस्से कहानिया बटोरना आज जीवन का अभिन्न पहलू हैं. कुल मिलाकर, अपने ट्रेवल ब्लॉग के माध्यम से दुनिया को अपनी दुनिया अपने अंदाज में की कोशिश कर रहा हूँ. पापा ने जो चिंगारी भड़काई थी, वह अपने उफान पर है और मैं हर किस्म की सड़क पर जीवन के जश्न को हर्ष और उन्माद के साथ मना रहा हूँ.
प्रसंग, घटनाएँ, गलतियों, सीखे और बातें तो अनगिनत; कुछ जग ज्ञात हैं तो कुछ जग विख्यात हैं, पर बहुत सी ऐसी हैं जो व्यक्तिगत हैं. लेकिन उपरोक्त तीन प्रसंगों ने मेरे जीवन को विशिष्ट रूप से परिभाषित किया एवं संवारा. सफ़र अभी शुरू हुआ है, भगवान से यही दुआ है कि पापा मम्मी के आशीर्वाद से जीवन का यह जश्न अनवरत जारी रहे.
इन सभी बातों के बीच, मेरी कोशिश यही है की अपने बेटे शिवांश को भी ऐसी सीखें दे सकूं जिससे वह भी जीवन के हर पल को जश्न के साथ जिए.